BHOPAL. चुनावी नतीजे की तारीख नजदीक है। बस तीन दिन बाद ये साफ हो जाएगा कि मध्यप्रदेश के नए सरकार कौन होंगे। लेकिन एक कंफ्यूजन ठीक वैसे ही बरकरार रहेगा जैसे कि पूरे चुनावी साल के दौरान रहा है। खासतौर से बीजेपी में, बीजेपी ने आखिर तक ये क्लीयर नहीं किया कि अगला सीएम फेस कौन होगा। यही कंफ्यूजन अब ये सवाल खड़े कर रहा है कि जीते तो किसके सिर जीत का सेहरा बंधेगा और हार गए तो वो ठीकरा किसके सिर फूटेगा। क्योंकि जीत के लिए सबके अपने-अपने दावे होंगे, जिसके जरिए खुद को क्रेडिट देना उनके लिए बहुत आसान होगा, जबकि हार का जिम्मा लेने वाला खुद कोई नहीं होगा। दूसरी तरफ कांग्रेस में ये तस्वीर बिलकुल क्लीयर है।
कांग्रेस में तस्वीर साफ
हारे या जीते कांग्रेस के पास दोनों ही केस में सिर्फ एक चेहरा हैं, वो हैं कमलनाथ, अगर पार्टी जीतती है तो प्रत्यक्ष रूप से इसका क्रेडिट सिर्फ और सिर्फ कमलनाथ को जाएगा। पर्दे के पीछे भले ही दिग्विजय सिंह भी तारीफों के हकदार बन जाएं। यही हाल हारने पर भी होगा। अगर कांग्रेस हारी तो इसका जिम्मेदार पूरी तरह से सिर्फ कमलनाथ ही माने जाएंगे। ये बात अलग है कि ये दिग्विजय सिंह के सियासी तजुर्बे और रणनीती की भी हार होगी। लेकिन बीजेपी में इन दोनों ही परिस्थितियों में जिम्मेदारी लेना बहुत मुश्किल होगा। बीजेपी ने जीत के खातिर मध्यप्रदेश में कोई चेहरा आगे नहीं किया, एक चेहरे के बदले बार-बार रणनीति बदलकर कई चेहरों को जीत की जिम्मेदारी वापस सौंप दी। जीते तो यकीनन क्रेडिट की डिमांड करेंगे और हार गए तो भी क्या जिम्मेदारी लेने आगे आएंगे।
पहले शिवराज सिंह ने फिर शाह ने कमान संभाली
मध्यप्रदेश में वापसी की खातिर बीजेपी ने कई लेयर्स में रणनीति तैयार की। पहले शिवराज सिंह चौहान अपने स्तर पर प्रचार करते रहे, उसके बाद अमित शाह ने कमान संभाली और सांसदों को बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी। इतने पर भी शायद बीजेपी को इत्मीनान नहीं हुआ और एमपी के मन में मोदी का नारा उछालकर पीएम मोदी का चेहरा आगे कर दिया। संभवतः इसके बाद भी जीत की गारंटी नहीं मिली और संघ को ऐन वक्त पर कमान संभालनी पड़ी। संघ ने मोहल्ला स्तर पर जाकर जागरण संभाएं कीं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक संघ के चालीस लाख कार्यकर्ता पूरे प्रदेश में एक्टिव हुए, जिसके बाद दावा किया जा रहा है कि बीजेपी की जीत पक्की है। लेकिन ये जीत किसके खाते में जाएगी क्रेडिट देते समय किसे बोना कर दिया जाएगा और किसका कद बढ़ा दिया जाएगा। उससे पहले ये तो तय करना ही होगा कि किसके दावे को कमजोर मान लिया जाए।
मोहल्ला स्तर पर संघ ने की जागरण सभाएं
बीजेपी की जीत के लिए अव्वल तो कोई एक चेहरा आगे नहीं है और दावेदारों की कतार बेहद लंबी है। क्रोनोलॉजी को थोड़ा उल्टा लेकर चलते हैं और सबसे पहले बात करते हैं संघ की, हर चुनाव से पहले संघ जागरण सभाएं करता है और लोगों को मतदान की अहमियत समझता है। लेकिन ये सिर्फ चुनावी सजगता के लिए नहीं होता। इसमें मुद्दों पर भी चर्चा होती है और मतदाता को समझाया जाता है कि कौन सा दल उन मुद्दों से निपटने के लिए बेहतर है। सुनने में आया है कि इस चुनाव से पहले संघ ने आम मतदाताओं को राज्यसभा की अहमियत समझाई है कि वो किस तरह मध्यप्रदेश की दावेदारी केंद्र में मजबूत कर सकती है। जो केंद्र को मजबूत करेगी और केंद्र सरकार के लिए राज्य से जुड़े फैसले ले पाना आसान होगा। ये दावा किया जा रहा है कि कांग्रेस भी इस तर्क को काट नहीं पाई और बीजेपी का पलड़ा भारी हो गया।
एमपी के मन में मोदी से बनेगी बीजेपी की बात
अब बात करते हैं पीएम मोदी की, जिनके लिए पूरा एंथम बना एमपी के मन में बसे मोदी, मोदी के मन में एमपी। इस एंथम के साथ शिवराज सिंह चौहान का चेहरा पूरी तरह गायब कर दिया गया। होर्डिंग से लेकर बैनर तक में नरेंद्र मोदी की तस्वीरें आगे हो गईं और शिवराज की तस्वीरें बोनी हो गईं। मोदी को पार्टी का सबसे लोकप्रिय चेहरा मान कर खूब सभाएं करवाईं गईं, खूब लोकार्पण और शिलान्यास के कार्यक्रम हुए। जीते तो यकीनन जीत का सबसे बड़ा सेहरा पीएम के सिर ही बंधेगा।
सांसद भी जीत के दावेदार होंगे?
जीत की खातिर सांसदों का चेहरा भी आगे किया गया, पहले उन्हें हर अंचल से अलग-अलग जनआशीर्वाद यात्रा में भेजा गया और उसके बाद टिकट ही सौंप दिए गए। अब पूरे प्रदेश में न सही अपने- अपने हिस्से की सीटों पर तो वो जीत में हिस्सेदारी मांगेगे ही। मसलन मालवा की सीटें जीतीं तो कैलाश विजयवर्गीय क्या क्रेडिट नहीं लेंगे। महाकौशल का सेहरा प्रहलाद पटेल के सिर सजना भी लाजमी होगा। भले ही बेटे के वीडियो लीक कर नरेंद्र सिंह तोमर के खिलाफ साजिशें अंजाम दी गईं, लेकिन चंबल में जीते तो क्या वो खामोश रहेंगे। इसी तरह ग्वालियर संभाग की सीटों पर क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने प्रभाव को क्रेडिट नहीं देंगे।
जीत के बाद क्या वीडी शर्मा चुप बैठेंगे, बीजेपी की सरकार सत्ता में लौटती है तो उसका क्रेडिट कसे हुए संगठन को जाएगा ही और, इसमें कोई दो राय नहीं कि संगठन के मुखिया होने के नाते इसके लिए वीडी शर्मा की ही पीठ थपथपाई जानी चाहिए, उन्हें यही उम्मीद होगी भी।
क्या लाड़ली बहना वाकई बनेगी गेमचेंजर
सबसे आखिर में लाड़ली बहना योजना को कैसे भूल सकते हैं। जिसका आगाज किया सीएम शिवराज सिंह चौहान ने, वैसे भी कोई कहे या न कहे चुनाव हलकों में पहले ही लाड़ली बहना योजना को गेम चेंजर माना जा चुका है। शिवराज का फेस भले ही चुनाव में आगे न हो लेकिन उनकी इस फ्लेगशिप योजना को भला कैसे जीत के चैप्टर से बाहर किया जा सकेगा। और लाड़ली बहना को जीत का क्रेडिट मिला तो वो शिवराज को भी जाएगा ही, इसके अलावा जनदर्शन यात्रा और अलग-अलग सभा और रैलियों के जरिए भी शिवराज आखिर समय तक चुनावी मैदान में एक्टिव रहे। अब उन्हें फिर से कुर्सी मिले या न मिले कुर्सी दिलाने के लिए तारीफ तो उनकी भी होगी ही।
जीते तो क्रेडिट के लिए सब तैयार
अब सवाल उठता है कि बीजेपी खुद किसे जीत का हार पहनाएगी। क्या नरेंद्र मोदी के नाम के आगे संघ और शिवराज की बिसात कायम रह पाएगी या सांसदों को उनकी मेहनत का क्रेडिट मिल सकेगा।
हारे तो किसके सिर लटकेगी तलवार?
जीतने के बाद क्रेडिट लेने की होड़ मचना तय है लेकिन हारे तो कौन आगे आएगा। बीजेपी के लिए ये भी एक बड़ा सवाल होगा।
3 दिसंबर के बाद बीजेपी को कई सवालों के जवाब तलाशने हैं। जीत या हार के लिए चेहरे तो ढूंढने ही हैं। अगर जीत गए तो सत्ता की बागडोर संभालने के लिए मुफीद चेहरा ढूंढना है और, अगर हारे तो नेता प्रतिपक्ष चुनना है और फिर ये सोचना है कि अब हारे हुए प्रदेश से लोकसभा सीटों का कितना नुकसान उठाना पड़ सकता है। यानी एक टेंशन के बाद बीजेपी एक और नए टेंशन का ही सामना करना है। अब ये टेंशन जीत की खुशी के साथ आता है या फिर हार की उदासी के साथ बस ये देखना बाकी है।